Mirza Ghalib Shayari, Quotes And 2 Line Shayari In Hindi

160+ Mirza Ghalib की शायरी ,कोट्स और 2 Line शायरी

मिर्जा गालिब का असली नाम ” मिर्जा असादुल्लाह बेग खान” था | मिर्जा गालिब को बचपन से ही उर्दू शेरो शायरी का और उर्दू कविताओं मैं बहुत रूचि रखने वाले व्यक्ति थे | पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई जुआ और शराब की लत ने इनको गरीब बना दिया | दिशाहीन कर दिया पर उर्दू शायरी और कविताओं के शौक ने अपने मंजिल तक पहुंचने में बहुत ज्यादा मदद किया | मिर्जा गालिब का जन्म 27 – 12 – 1797 मैं आगरा शहर के भारत देश में हुआ था | जब भी हमने शायरी लिखना शुरू किया लोगों का उनकी शायरी में कोई खास रुचि नहीं रखते थे पर मिर्जा गालिब के इंतकाल के बाद इनकी शायरी को तथा कविताओं को ज्यादा अहमियत प्राप्त हुआ | भारत की वह पहले प्रसिद्ध शायरों में इनका नाम स्वर्णिम अक्षर में अंकित है इनका इंतकाल दिल्ली शहर में 15 – 02- 1869 हुआ था |

कोशिश करें अपने दुख अपने
चेहरे से जाहिर मत होने दें,
क्यूं न तो आज किसी के पास
वो आंखें हैं, ना एहसास ना दिल✍

शायद इसीलिये शायरी इतनी
खूबसूरत होती है,
कभी सच छुपा लेती है
तो कभी शक्स✍

हज़ारों ढवाहिशें ऐसी की हर हवाहिश पे दम निकले
बहुत निकल मायर अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

न बज्म अपना, न साकी अपना, न शीशा अपना, न जाम अपना अगर
यही है निज़ामी हस्ती तू ग़ालिब ज़िंदगी को सलाम अपना

हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया
पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना
कि यूँ होता तो क्या होता

हम को मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है

कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
हम को जीने की भी उम्मेद नहीं

था ज़िन्दगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग ज़र्द था

मेरी क़िस्मत माई ग़म गर इतना था
दिल बी या रब काई दिए होते

की वफा हम से तू घर इस को जाफा कहते हैं
होती आई है के अचोन को बुरा कहते हैं

जाते होए कहते हो कयामत को मिलेंगे
क्या खोब कयामत का है गोया कोई दिन और

होये मार के हम जो रुसवा होये कुन ना घर दरिया
न कबी जनाजा उठा न कहा मजार होता

ये दुनिया मतलब की है तुम किस मुखलिस की बात करते हो
ग़ालिब लोग जनाज़ा परने आते हैं वो बी अपने सवाब की खातिर

बिक रहा है जूनों में क्या क्या कुछ
कुछ ना समझे खुदा करे कोई

हेरान हो तुम को मस्जिद माई देख के गालिब
ऐसा बी किया हो के खुदा याद ए गया

जी ढोंडता है फिर वही फुर्सत के रात दिन
बेठे रहे तस्वर जाना किए होए

हाथ ज़ख़्मी है कुछ अपनी ही खाता थी किस्मत के लकीर को मिटाना चाहा

हम ने मोहब्बत के नशे में आ कर उन्हें खुदा बनाया डाला।
होश तो तब आया जब उन्‍होंने कहा कि खुदा किसी एक का नहीं होता।

आए हैं बे-कसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब, किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बाला मेरे बाद

मत कर इतना घुरूर
अपने आप पर “ऐ इंसान”
ना जाने खुदा ने
कितने तेरे जैसे बन बना
कर मिटा दिया…

गुस्से में खामोशी के
चांद लम्हाट
पचतावों के हजार लम्हाट

मैं ने जुनूँ से की जो ‘असद’ इल्तिमास-ए-रंग,
ख़ून-ए-जिगर में एक ही ग़ोता दिया मुझे।

है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर,
याँ क्या धरा है क़तरा ओ मौज-ओ-हबाब में।

हाँ अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़्त,
देखा कि वो मिलता नहीं अपने ही को खो आए।

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह,
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही सामने तेरे आए क्यूँ।

जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल,
दीदा-ए-दिल को ज़ियारत-गाह-ए-हैरानी करे।

की उस ने गर्म सीना-ए-अहल-ए-हवस में जा,
आवे न क्यूँ पसंद कि ठंडा मकान है।

लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हनूज़,
लेकिन यही कि रफ़्त गया और बूद था।

तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल,
मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़।

हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ’र की,
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई।

मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले,
दशना इक तेज़ सा होता मिरे ग़म-ख़्वार के पास।

फ़र्दा-ओ-दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया,
कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई।

गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़,
पर हम ऐसे खोए जाते हैं कि वो पा जाए है।

नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़,
तू वो नहीं कि तुझ को तमाशा करे कोई।

ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में,
कभी मेरे गरेबाँ को कभी जानाँ के दामन को।

हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद,
गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में।

ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग,
दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को।

बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी,
सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी।

वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ,
हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर।

साए की तरह साथ फिरें सर्व ओ सनोबर,
तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार में आवे।

सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का,
वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का।

सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी,
रू सू-ए-क़िबला वक़्त-ए-मुनाजात चाहिए।

काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना,
ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त।

पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब,
इस बलग़मी-मिज़ाज को गर्मी ही रास है।

ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में,
गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है।

समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल,
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिए।

गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर,
देते हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख के।

हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा,
अजब आराम दिया बे-पर-ओ-बाली ने मुझे।

वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है,
तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे।

फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार,
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मेरे आगे।

पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का,
आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए।

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं,
सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं।

विदाअ ओ वस्ल में हैं लज़्ज़तें जुदागाना,
हज़ार बार तू जा सद-हज़ार बार आ जा।

मैं ना-मुराद दिल की तसल्ली को क्या करूँ,
माना कि तेरे रुख़ से निगह कामयाब है ।

ऐ नवा-साज़-ए-तमाशा सर-ब-कफ़ जलता हूँ मैं,
इक तरफ़ जलता है दिल और इक तरफ़ जलता हूँ मैं।

तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें,
हम औज-ए-ताला-ए-लाला-ओ-गुहर को देखते हैं।

न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़,
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़।

है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद,
हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में।

वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है,
मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को।

कभी शब्दों में तलाश न करना वजूद मेरा,
मैं उठाना जैसा नि पता जितना महसूस कर्ता हु।

वो साथ था हमारे, ये हम पास उसके..
वो जिंदगी के कुछ दिन,
हां जिंदगी थी कुछ दिन।

दरिया बन कर किसी को
दुबाना बोहोत आसन है
मगर जरिया बन कर
किसी को बचाओ तो कोई
बात बने…

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है

इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के

सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है,
बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है,
देखना तक़रीर के लज़्ज़त की जो उसने कहा,
मैंने यह जाना की गोया यह भी मेरे दिल में है।

दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।

किसी की क्या मजाल थी जो कोई हमें खरीद सकता,
हम तो खुद ही बिक गये खरीददार देखके।

खैरात में मिली ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती ग़ालिब,
मैं अपने दुखों में रहता हु नवावो की तरह।

हम को मा. आलम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रखने को ‘गहालिब’ ये हल अच्छा है

मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दाम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

ये न थी हमारी किस्मत की विशाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतजार होता

रागों में दौड़े फिरने के हम नहीं का.इल
जब आंख ही से न तपका तो फिर लहू क्या है

इशरत-ए-कतरा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का था से गुजारना है दावा हो जाना

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता।

न था कुछ तो हुडा था कुछ न होता तो हुडा होता
दुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता

काबा किस मुंह से जाओगे ‘गहालिब’
शर्म तुम को मगर नहीं आती

दर्द मिन्नत-काश-ए-दावा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

कोई मेरे दिल से पूछे टायर तीर-ए-नीम-कैश को
ये हलिश कहां से होती जो जिगर के पार होता

क़र्ज़ की पिते में लेकिन समझते की हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़क़-मस्ती एक दिन

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

ख़्वाहिशें हज़ार ऐसी, हर ख़्वाहिश पूरी हुई,
ख़्वाबों से तो बहुत निकलीं, लेकिन फिर भी कम निकलीं

अच्छे लोगो की एक खूबी ये भी होती है
क उन्हें याद रखना नहीं पड़ता वो याद रहते है

अपनी ज़िन्दगी में ऐसे दोस्त शामिल करो
जो आइना सा बन कर आप की सही पहचान बताते रहे तथा आप के साथ रहे

बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब,
जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है।

दुख देकर सवाल करते हो , तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो,
देख कर पूछ लिया हाल मेरा , चलो कुछ तो ख्याल करते हो।

शहर – ए – दिल मै ये उदासियां कैसी,
ये भी मुझसे सवाल करते हो।

यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई,
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था।

मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश,
तू और एक वो ना-शुनीदन कि क्या कहूँ।

नश्शा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल,
मस्त कब बंद-ए-क़बा बाँधते हैं।

शहर – ए – दिल मै ये उदासियां कैसी,
ये भी मुझसे सवाल करते हो।

मरना चाहे तो मर नहीं सकते ,
तुम भी जीना मुहाल करते हो।

उनके देखने से जो आ जाती है मुंह पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।

इश्क पर ज़ोर नहीं है,ये वो आतिश है गालिब,
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।

बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’,
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं।

मेरे बारे में कोई राय मत बनाना ग़ालिब,
मेरा वक्त भी बदलेगा तेरी राय भी।

अब किस किस सितम की मिसाल दू मै तुमको,
तुम तो हर सितम बेमिसाल करते हो ।

80+ 2 Line Shayari Mirza Ghalib Quotes !

आया है मुझे बेकशी इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किस का घर जलाएगा सैलाब भला मेरे बाद

मुझसे कहती है सादा तेरे साथ राहूंगी ..
बोहोत प्यार करती हैं मुझसे उदासी मेरी !!

आया है मुझे बेकशी इश्क़ पे रोना ग़ालिब !!
किस का घर जलाएगा सैलाब भला मेरे बाद !!

इश्क़ से तबियत-ने ज़ीस्त का मज़ा पाया !!
दर्द की दवा पाई-दर्द बे-दवा पाया !!

हम कोई तर्क-ए-वफ़ा करते हैं !!
न सही इश्क़-मुसीबत ही सही !!

बुलबुल के कारोबार-पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल !!
कहते हैं जिस को-इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का !!

इश्क़ में जी को-सब्र ओ ताब कहाँ !!
उस से आँखें-लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ !!

सुकून और इश्क़-वो भी दोनों एक साथ !!
रहने दो ग़ालिब कोई-अक्ल कि बात करो !!

इश्क़ ने पकड़ा न था-ग़ालिब अभी वहशत का रंग !!
रह गया था दिल में जो-कुछ ज़ौक़-ए-ख़्वारी हाए हाए !!

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़-के क़ाबिल नहीं रहा !!
जिस दिल पे नाज़-था मुझे वो दिल नहीं रहा !!

बेदाद-ए-इश्क़ से-नहीं डरता मगर असद !!
जिस दिल पे नाज़ था-मुझे वो दिल नहीं रहा !!

नहीं होता किसी तबीब से इस मर्ज़ का इलाज !!
इश्क़ लाइलाज है बस एहतियात कीजिए !!

बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब !!
जिसे खुद से बढ़कर-चाहो वो रुलाता जरूर है !!

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना !!
दर्द का हद से गुज़रना-है दवा हो जाना !!

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का !!
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले !!

कितना ख़ौफ होता है शाम के अंधेरों में !!
पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते !!

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले !!
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले !!

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे !!
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और !!

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता !!
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता !!

दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए !!
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए !!

हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब !!
नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते !!

वाइज़ तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिलाके देख !!
नहीं तो दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख !!

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को !!
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं !!

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी !!
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है !!

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार !!
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है !!

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल !!
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है !!

दिल ए नादाँन तुझे हुआ क्या है !!!
आख़िर ईस दर्द कि दवा क्या हैं ॥॥॥

इशरत ऐ क़तरा है दरिया मैं फ़ना हो जाना…
दर्द का हद् से गुज़ारना हैं दवा हो जाना ॥

दिल से तेरी निगाह जिगर ताक उतर गया..
दोनों को इक आदा में रज़ामंद कर गया ॥

कौन पूछता है पिंजरे में बंद पक्षी को ग़ालिब ..
याद वही आते है जो छोड़कर उड़ जाते है !!

आईना देख अपना-सा मुँह ले-के रह गए !!
साहब को दिल न-देने पे कितना ग़ुरूर था !!

लफ़्ज़ों की तरतीब मुझे-बांधनी नहीं आती “ग़ालिब !!
हम तुम को याद-करते हैं सीधी सी बात है !!

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया !!
वर्ना हम भी आदमी थे काम के !!

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ !!
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है !!

काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’ !!
शर्म तुम को मगर नहीं आती !!

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है !!
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है !!

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’ !!
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे !!

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना !!
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना !!

तेरी दुआओं में असर हो तो !!
मस्जिद को हिला के दिखा !!

तुम्हें नहीं है सर-ऐ-रिश्ता-ऐ-वफ़ा का ख्याल !!
हमारे हाथ में कुछ है मगर है क्या कहिये !!

कहा है किस ने की “ग़ालिब ” बुरा नहीं लेकिन !!
सिवाय इसके की आशुफ़्तासार है क्या कहिये !!

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें !!
चल निकलते जो में पिए होत !!

क़हर हो या भला हो जो कुछ हो !!
काश के तुम मेरे लिए होते !!

मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था !!
दिल भी या रब कई दिए होते !!

आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’
कोई दिन और भी जिए होते !!

फिर तेरे कूचे को जाता है ख्याल !!
दिल -ऐ -ग़म गुस्ताख़ मगर याद आया !!

कोई वीरानी सी वीरानी है !!
दश्त को देख के घर याद आया !!

सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है !!
बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है !!

देखना तक़रीर के लज़्ज़त की जो उसने कहा !!
मैंने यह जाना की गोया यह भी मेरे दिल में है !!

मैं नादान था जो वफ़ा को !!
तलाश करता रहा “ग़ालिब !!

यह न सोचा के एक दिन अपनी साँस भी !!
बेवफा हो जाएगी !!

जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन !!
बैठे रहें तसव्वुर–ए–जानाँ किए हुए !!

ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर !!
आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में !!

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल !!
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है !!

अर्ज़–ए–नियाज़–ए–इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा !!
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा !!

मुहब्बत में उनकी अना का पास रखते हैं !!
हम जानकर अक्सर उन्हें नाराज़ रखते हैं !!

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर–ए–नीम–कश को !!
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता !!

तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो !!
हज़र करो मिरे दिल से कि उस में आग दबी है !!

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा !!
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं !!

न सुनो गर बुरा कहे कोई !!
न कहो गर बुरा करे कोई !!

रोक लो गर ग़लत चले कोई !!
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई !!

तेरे वादे पर जिये हम तो यह जान झूठ जाना !!
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता !!

भीगी हुई सी रात में जब याद जल उठी !!
बादल सा इक निचोड़ के सिरहाने रख लिया

नहीं तो दो घूँट पी और !!
मस्जिद को हिलता देख !!

लाज़िम था के देखे मेरा रास्ता कोई दिन और !!
तनहा गए क्यों अब रहो तनहा कोई दिन और !!

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई !!
दोनों को एक अदा में रजामंद कर गई !!

मारा ज़माने ने ग़ालिब तुम को !!
वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई !!

उल्फ़त पैदा हुई है कहते हैं हर दर्द की दवा !!
यूं हो हो तो चेहरा -ऐ -गम उल्फ़त ही क्यों न हो !!

नादान हो जो कहते हो क्यों जीते हैं “ग़ालिब !!
किस्मत मैं है मरने की तमन्ना कोई दिन और !!

आया है मुझे बेकशी इश्क़ पे रोना ग़ालिब !!
किस का घर जलाएगा सैलाब भला मेरे बाद !!

ख्वाहिशों का काफिला भी अजीब ही है “ग़ालिब !!
अक्सर वहीँ से गुज़रता है जहाँ रास्ता नहीं होता !!

करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला !!
बस एक ही निगाह की बस ख़ाक हो गए !!

ग़ालिब“ छूटी शराब पर अब भी कभी कभी !!
पीता हूँ रोज़-ऐ-अबरो शब-ऐ-महताब में !!

रात है सनाटा है वहां कोई न होगाग़ालिब !!
चलो उन के दरो -ओ -दीवार चूम के आते हैं !

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई !!
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई !!

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ !!
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ !!

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक !!
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक !!

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां !!
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन !

तेरे हुस्न को परदे की ज़रुरत नहीं है “ग़ालिब !!
कौन होश में रहता है तुझे देखने के बाद !!

दर्द हो दिल में तो दबा दीजिये !!
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिये !!

आज फिर इस दिल में बेक़रारी है !!
सीना रोए ज़ख्म-ऐ-कारी है !!

फिर हुए नहीं गवाह-ऐ-इश्क़ तलब !!
अश्क़-बारी का हुक्म ज़ारी है !!

बे-खुदा बे-सबब नहीं “ग़ालिब !!
कुछ तो है जिससे पर्दादारी है !!

तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी !!
मेरा न बन सका “ग़ालिब !!

और दिल वो काफिर !!
जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया !!

पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के !!
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है !!

जब लगा था तीर तब-इतना दर्द न हुआ ग़ालिब !!
ज़ख्म का-एहसास तब हुआ !!
जब कमान देखी-अपनों के हाथ में !!

इश्क़ पर जोर नहीं है-ये वो आतिश ग़ालिब !!
कि लगाये न लगे-और बुझाये न बुझे !!

इश्क़ ने ग़ालिब-निकम्मा कर दिया !!
वरना हम भी-आदमी थे काम के !!

रोने से और इश्क़-में बे-बाक हो गए !!
धोए गए हम इतने-कि बस पाक हो गए